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पञ्चभूत।

नहीं देते। सा-रे-ग-म का पहला सुर गधे के सुर से लिया गया है, ऐसी अद्भुत-कल्पना किसी स्वरज्ञाता के मन में उत्पन्न हो किस प्रकार हुई, इसका निश्चय करना हमारे लिए बहुत ही कठिन है।

व्योम ने कहा—ग्रीक लोग इस बाह्य-जगत को भाप या मरीचिका के समान नहीं समझते थे। उनकी समझ में बाह्य-जगत प्रत्यक्ष प्रकाशमान था। इसलिए वे मानसिक सृष्टि से बाह्य-सृष्टि का मिलान करने के लिए विशेष सावधान रहते थे। यदि वे किसी विषय में परिमाण का डाँक जाते तो बाह्य-जगत् के सामने उनको लज्जित होना पड़ता था। अत: उन लोगों ने अपने देवी-देवता आदि की मूर्त्तियाँ सुन्दर बनवाई हैं। उनकी मानसिक सृष्टि पर बाह्य-जगत् की प्रबल छाया पड़ी है जिससे उनकी भक्ति और आनन्द में कोई न्यूनता नहीं होती। हम लोगों का सिद्धान्त वैसा नहीं है। हम लोग अपने देवता की चाहे जैसी मूर्त्ति बनावें परन्तु हमारी कल्पना के साथ बाह्य-जगत् का कोई भी विरोध नहीं रहता। मूषक-वाहन चतुर्भुज एकदन्त लम्बोदर गणेश को मूर्त्ति हमारे लिए हास्यास्पद नहीं। क्योंकि हम लोग उस मूर्त्ति की उपासना अपने हृदय में ही करते हैं; बाहरी बातों से—जगत की सच बातों से—मूर्त्तियों की तुलना करना हम लोग ठीक नहीं समझते। क्योंकि हम लोगों की दृष्टि में बाह्य जगत् की सत्यता नहीं है, प्रत्यक्ष-सत्य पर हम लोगों का विश्वास नहीं है। हम लोग किसी एक पदार्थ का अवलम्बन करके अपने मानसिक भावों को सदा जागृत रखते हैं।