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विचित्र प्रबन्ध।


वायु न कहा—जिसके आधार से हम लोग प्रेम या भक्ति का उपभोग करते हैं अथवा साधना करते हैं वह अवलम्बन सम्पूर्ण और स्वाभाविक भी हो, इस बात पर ध्यान देना हम आवश्यक नहीं समझते। हम लोग सामने एक मूर्त्ति कुरुप भी देखें तो भी उसको सुन्दर समझते हैं। मनुष्य की श्याम छवि हम लोगों के हृदय को विशेष रूप से आनन्दित नहीं कर सकती, परन्तु उसी श्याम छवि से अङ्कित कृष्ण की मूर्त्ति देख कर हम लोग गद्गद हो जाते हैं। बाह्यजगत् के आदर्श को जो अपनी इच्छा के अनुसार नहीं बदल सकते, उसमें कुछ फेरफार नहीं कर सकते, वे जब अपने मानसिक सुन्दर भाव को मूर्त्ति का रूप देने लगते हैं उस समय वे उस मूर्त्ति में अम्वाभाविकता अथवा कुरूपता नहीं रहने दते। ग्रीकों की नज़र को कृष्ण का) साँवला सलोना रङ्ग बराबर खटकता।

व्याम ने कहा—हम भारतवासियों की इस प्रकृतिगत विशेषता के कारण, सम्भव है, उच्च कोटि की कलाविद्या की उन्नति में बाधा उत्पन्न हुई हो, परन्तु इससे कुछ फल भी हुआ है। हम लोगों को प्रेम-स्नेह और सौन्दर्य के उपभोग के लिए किसी बाहरी पदार्थ का मुखापेक्षी नहीं होना पड़ता, सुभीते-सुयोग आदि को प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। हमारे देश की स्त्रियाँ अपने पति को देवता समझ कर उनकी पूजा करती हैं। परन्तु भक्ति की जाने के लिए पति में देवभाव या महत्व आदि का वर्तमान रहना स्त्रियाँ आवश्यक नहीं समझती; पति पशु के समान ही क्यों न हो तथापि उसकी पूजा में किसी प्रकार की त्रुटि न होगी। यहाँ की