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पञ्चभूत।

परन्तु यथार्थ भक्ति-भाजन को ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं समझते। अपात्र की भक्ति करते हैं और उसीसे हम सन्तुष्ट रहते हैं। अत-एवं हम लोग कहते हैं कि हमार गुरु पृज्य हैं; हम लोग यह नहीं कहते कि जो पृज्य हैं वे हमारे गुरु हैं। कान में मन्त्र फूँकनेवाले ही हमारे गुरु हैं, उस मन्त्र का अर्थ भी उनको मालुम नहीं है, अथवा गुरुजी हमारे झूठे मुकदमे में प्रधान साक्षी हैं। गुरुजी की योग्यता तो यह है, परन्तु उनकी चरण-रज से अपना मस्तक पवित्र करने की हमें बड़ो लालसा रहती है। इस प्रकार के सिद्धान्त के अनुसार हमें भक्ति-भाजन का ढूँढना नहीं पड़ता। बड़ आराम की भक्ति है।

वायु ने कहा—शिक्षा के प्रभाव से हम लोगों का हृदय आज-कल डाँवाडोल होगया है, इसके उदाहरण के स्थान पर हम बङ्किम बाबू के कृष्ण-चरित्र को ही लेते हैं। बङ्किम बाबू ने कृष्णा की पूजा करने और उनकी पूजा प्रचारित करने के पहले, श्रीकृष्ण को निर्मल और निष्कलङ्क बनाने का प्रयत्न किया है। उनका यह प्रयत्न इतना बढ़ गया है कि कृष्णा के चरित्र से अप्राकृतिक बातों को उन्होंने काट-छाँट कर बिलकुल अलग कर दिया है, अपने मानसिक ऊँचे आदर्श पर उन्होंने श्रीकृष्ण को बैठाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने यह बात कहीं नहीं कहा है कि देवताओं के लिए कोई दोष नहीं है, अथवा तेजस्वियों के सभी दोष क्षन्तव्य होते हैं। उन्होंने एक नये असन्तोष का अंकुर उत्पन्न किया है। सच्चे देवता को ढूँढ़ने के लिए उन्होंने बड़ा प्रयत्न किया है। बङ्किम बाबू इस प्रकृति के मनुष्य नहीं थे कि जिसको देखा उसी को प्रणाम किया और सन्तुष्ट होगये।

क्षिति ने कहा—इस असन्तोष के न रहने के कारण बहुत