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विचित्र प्रबन्ध।

दिनों से देवता को देवता होने की, पूज्य को उन्नत बनने की और मूर्त्ति का भाव के अनुसार होने की आवश्यकता नहीं हुई है। ब्राह्मण को हम देवता कहते हैं, इस कारण बिना कारण ही ब्राह्मण पूजा पाते हैं और हम लोग भी भक्ति करने बन्धन से छूट जाते हैं। देवता समझ कर स्त्री पूजा करती है इसलिए पति किसी भी योग्यता को प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करता, और स्त्री को भी यथार्थ भक्ति-योग्य पति के न मिलने का कोई कष्ट नहीं होता। सौन्दर्य का अनुभव करने के लिए सुन्दर पदार्थ की आवश्यकता नहीं है, भक्ति करने के लिए भक्तिभाजन का भी काई प्रयोजन नहीं है—इस प्रकार की परम सन्तोष-वृत्ति को हम सुभीता नहीं मान सकते। इससे समाज की दीनता, अप्रतिष्ठा और अवनति होती है। बहिर्जगत् की उपेक्षा करके—उसे लुप्त करके—केवल मानसिक जगन् का ही सर्व-प्रधान मानना हानिकारी है: जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को काटने के समान है।

सभ्यता का आदर्श

नदी ने कहा—देखो भाई, आज घर में उत्सव है, भले भले आदमी आयेंगे, अत: तुम लोग अपने व्योम से कह दो कि आज वह सभ्यवेश में आवे।

यह सुन कर हम सब लोग हँसने लगे। कुछ अप्रसन्न होकर दीप्ति ने कहा—नहीं जी, यह हँसने की बात नहीं है। तुम लोग व्योम से अवश्य कह दो, नहीं तो न मालूम वह सभ्य-समाज में कैसा वेश बनाकर आवे। इन सब बातों में समाज का अनुगमन विशेष आवश्यक है।