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रङ्गमञ्च।

है उसके लिए, जो बड़ा है वह, अपने किसी अंश को क्योँ हीन होने देगा? भावुक दर्शक के हृदय में रङ्गमञ्च है और उसमें स्थान की कमी नहीं है। वहाँ किसी जादूगर के हाथ से दृश्य-पटों की रचना अपने आप हुआ करती है। उसी मञ्च, उसी दृश्यपट, से नाटककार को काम है। कोई कृत्रिम मञ्च या कृत्रिम पर्दा कवि की कल्पना के योग्य नहीं हो सकता।

इसी कारण दुष्यन्त और सारथि जिस समय एक ही जगह स्थिर भाव से खड़े होकर वर्णन और अभिनय के द्वारा रथ के वेग की आलोचना करते हैं, उस समय अनायास ही दर्शक समझ लेते हैं कि रङ्गमञ्च छोटा है, परन्तु कवित्व छोटा नहीं है। इसी से वे रङ्गमञ्च की इस अनिवार्य त्रुटि को ख़ुशी से माफ़ कर देते हैं और अपने चित्त को ही उस छोटे घेरेवाले रङ्गमञ्च में फैला कर मञ्च को महान बना देते हैं। परन्तु रङ्गमञ्च के लिए यदि काव्य को हीन बनना पड़ता तो इन कई एक लकड़ी के टुकड़ों को कौन माफ़ कर देता? वह त्रुटि किसे न खटकती?

शकुन्तला नाटक को बाहरी चित्रपटों की कोई आवश्यकता न थी। इसी से उसने अपने लिए आप चित्रों की सृष्टि करली है। उसका कण्व का आश्रम, उसका स्वर्ग के मार्ग का मेघ-जगत्, उसका कश्यप का तपोवन अनूठा है। इन चित्रों के लिए वह परमुखापेक्षी नहीँ बना। उसने आप ही अपने को पूर्ण कर लिया है। चरित्र की सृष्टि करने अथवा स्वभाव का चित्र खींचने में उसे अपनी ही कवित्व-सम्पत्ति पर भरोसा है।

हमने एक दूसरे प्रबन्ध में यह बात कही है कि यूरोप के