पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३४५

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विचित्र प्रबन्ध । ममझता हूँ कि यदि काव्य-दृष्टि से सृष्टि-तत्व पर विचार किया जाय तो मृत्यु ही उनमें सब से प्रधान रस निश्चित होगा । मृत्यु के कारण ही उसमें यथार्थ कवित्व-शक्ति उत्पन्न हुई है । यदि मृत्यु न होती, संसार में जिस वस्तु का जहाँ स्थान है वह वस्तु यदि सदा अविकृत रूप से वहीं वर्तमान रहती तो यह संसार स्थायी कब्रिस्तान के समान अत्यन्त सकोण हो जाता, अत्यन्त कठिन और सब ार से बंध जाता। इस निश्चतता के स्थायी भार का वहन करना मनुष्यों के लिए बहुत ही कठिन हो जाता। यह अस्तित्व का भारी भार मृत्यु के द्वारा हलका होता रहता है । विचरण करने के लिए जगत् के बड़े भारी मैदान का वह साफ़ रखती है। मृत्यु के केन्द्र की ओर यह जगन् असीम है । जो प्रत्यक्ष है, जो वर्तमान है, वही हम लोगों के लिए उपादेय और आदरणीय है वही यदि चिरस्थायी होता तो उसका अकेलापन बेहद अखरता । फिर उसकी शिकायत ही नहीं हो सकती। उस समय यह कौन बतलाता कि इसके बाहर भी असीमता है ? यदि मृत्यु अपने प्रबल प्रवाह में अनन्त को बहा न ले जाती तो उस अनन्त के भार को यह जगत् कसे सँभाल सकता ? वायु ने कहा- यदि मृत्यु न होती तो मनुष्यों के जीवित रहने की कोई भी मर्यादा नियत न रहनी । दुनिया जिसकी निन्दा करती है, जिसका तिरस्कार करता है वह व्यक्ति भी मृत्यु रहने के कारण अपनी ज़िन्दगी से ऊब नहीं जाता। क्षिति ने कहा- मैं इसके लिए विशष चिन्तित नहीं हूँ। मेरे मत से, मृत्यु के न रहने पर मब पदार्थों का परिचालित कौन 1