पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३५१

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३४० विचित्र प्रबन्ध । हम लोगों को इसका प्रमाण प्रतिदिन मिलता है। जो वैद्य अपनी निपुछता और चिकित्सा की अभिज्ञता से रोगियों का राग हटाता है, उसके विषय में हम कहते हैं कि इसके हाथ मैं यश है, यह यशस्वी है। शास्त्रीय चिकित्मा के द्वारा वैद्य न रोग दूर किया, इस बात से न तो हम लोगों की तृप्ति ही होती है और न अानन्द ही होता है। चिकित्मा करनेवाले की निपुणता न मानकर उनमें अनियम को कारण बता कर हम लोग तृप्त होते हैं। मैंने कहा-इमका कारण यह है कि यद्यपि नियम व्यापक है, अनन्त काल और देश में फैला हुआ है, तथापि सामा-बद्ध है.--यह अपनी परिधि से इधर उधर कभी नहीं हटता, अतएव उसका नाम नियम है और इसी कारण मनुष्य की कल्पना भी उसके अधीन रहना नहीं चाहती। शास्त्रीय चिकित्सा में हम लोग अधिक फल होने की प्राशा नहीं करते-गग असाध्य है, चिकित्सा से दूर होने की आशा नहीं है, नियम अपनी सीमा तक पहुँच गया है। उस समय हाथ के यश नामक पदार्थ पर हम लोग भरोसा करते हैं क्योंकि उसकी सीमा नहीं है अतएव हम लोगों की प्राशा-कल्पना-उनकं द्वारा राकी नहीं जाती। इसलिए वैद्य की दवा की अपेक्षा महात्मा की दवा विशेष महत्व की ममझा जाती है। महात्मा की औषध कं कितने अच्छे अच्छे फल हाँगे, इसको कोई सीमा नहीं है, इस प्राशा का अन्त नहीं है। मनुष्य की जानकारी इस विषय में ज्यों ज्यों अधिक बढ़ती है, अमिट नियमों का उसे ज्यों ज्यों अधिक परिचय होता है, त्यो त्यों वह कुतूहल की स्वाभाविक नई अभिलाषा को सीमा-बद्ध करता है। उस समय