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विचित्र प्रबन्ध

कवियों ने वसन्त के कुहू-स्वर ( कोयल के शब्द ) और वर्षा की मयूर-ध्वनि को अपने काव्यों में समान आदर दिया है। यह देख कर सहसा यह बात समझ मेँ आ सकती है कि अवश्य कवि कैवल्य-मुक्ति को प्राप्त होगया था; इसीसे अच्छे-बुरे का, कोमल और कड़े का भेद उसे मालूम नहीं पड़ता था।

मयूर ही की ध्वनि क्यों, मेंढक के शब्द और झिल्ली की झनकार को कोई भी मधुर शब्द नहीं कह सकता। किन्तु कवियों ने इनके शब्दों की भी उपेक्षा नहीं की। यह ठीक है कि कवि प्रियतमा के कण्ठ-स्वर के साथ इन शब्दों की तुलना करने का साहस नहीं कर सके। किन्तु छः ऋतुओं के महासङ्गोत का प्रधान अङ्ग कह कर उनका सम्मान दिया है।

एक प्रकार की मधुरता है। उस मधुरता में किसी को सन्देह नहीं। वह बहुत ही मीठी है। उसकी मधुरता प्रमाणित होने में घड़ी भर की देर नहीं लगती। इन्द्रियों की सन्देह-रहित गवाही लेकर मन उसके सौन्दर्य को स्वीकार कर लेने में कुछ भी तर्क नहीं करता। वह मधुरता हम लोगों के मन के द्वारा आविष्कृत नहीं होती, किन्तु इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होती है। अतएव मन उसका तिरस्कार करके कहता है―यह अत्यन्त मधुर है, केवल मधुर है। अर्थात् उसकी मधुरता समझने में हृदय की कोई आव- श्यकता नहीं पड़ती; वह मधुरता इन्द्रियों के द्वारा ही मालूम पड़ जाती है। जो गाने की विद्या में समझदार समझे जाते हैं वे बड़ी उपेक्षा दिखला कर कहते हैं―इस मनुष्य का गाना मीठा है। इसका भाव यही है कि मधुर गायक का गान इन्द्रियों के सामने