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मयूरध्वनि।

ही अपनी मधुरता प्रकाशित कर देता है; अतएव अनायास ही

उसको वाहवाही भी मिल जाती है। परन्तु यह है गाने का अपमान। मार्जित रुचि और शिक्षित मन के दरबार में उस गाने की पैठ नहीं। जो लोग पाट की जाँच करने में निपुण हैँ वे हरे पाट नहीं लेते। वे कहते हैं, मुझे सूखा पाट दो; जिससे मैं उसका ठीक वज़न जान सकूँ। जो लोग गाना समझते हैं वे कहते हैं कि व्यर्थ रस के द्वारा गान का व्यर्थ गौरव मत बढ़ाना―मुझे सूखा माल दो। मैं उसका ठीक वजन समझ कर, खुश होकर, उसके दाम चुका दूँगा। बाहर की व्यर्थ मिठास असल चीज़ की क़ीमत का कम कर देती है।

जो वस्तु स्वभाव से ही मधुर है वह शीघ्र ही मन में आलस्य ले आती है। उसमें अधिक देर तक मनो-निवेश नहीं रह सकता। शीघ्र ही उसकी सीमा के पार पहुँच कर उससे मन ऊब जाता है और कहता है―बस, बहुत हुआ अब रहने दो।

इसका कारण यह है कि जिसने जिस विषय में विशेष शिक्षा प्राप्त की है वह उस विषय के शुरू के बहुत ही सहज और लालित अंशों का विशेष आदर नहीं करता। क्योंकि उसने इन बातों की सीमा जान ली है। वह समझता है कि इनकी दौड़ दूर तक नहीं है। इसी कारण उसका हृदय उन बातों में नहीं लगता। अशिक्षित मनुष्य उसी सहज अंश को समझ सकता है, और उस समय तक भी उसे उसकी सीमा का ज्ञान नहीं होता। इसी कारण उसे इस उथले अंश में ही आनन्द मिलता है। समझदार आदमी उस आनन्द को एक अजीब बात समझता है। कभी कभी तो वह उस आनन्द को कपट का आडम्बर भी मान लेता है।