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विचित्र प्रबन्ध।

इसी कारण सब तरह की कलाविद्या के सम्बन्ध मेंँ शिक्षित और अशिक्षित के आनन्द की जुदी जुदी राहें हैं। एक पक्ष कहता

है, तुम क्या समझोगे! दूसरा पक्ष बिगड़ कर कहता है―समझने की जितनी बातें हैं वे सब तुम्हीं तो समझते हो, इस संमार में और दूसरा कोई नहीं समझ सकता!

औचित्य का आनन्द, उचित सन्निवेश का आनन्द, किसी दूर- वर्ती के साथ सम्मिलन का आनन्द और परिचित पदार्थ का किसी मनोहर रूप में देखने का आनन्द, ये सब आनन्द मानसिक आनन्द हैं। बिना भीतर घुसे, बिना समझे, इस आनन्द को भोगने का दूमरा उपाय नहीं है। केवल बाहर से चटपट जो सुख प्राप्त होता है उसकी अपेक्षा यह आनन्द चिरस्थायी और गहरा होता है।

एक दृष्टि से तो यह आनन्द उससे भी गहरा है। जो गहरा नहीं है वह शिक्षा बढ़ने के साथ, अभ्यास के साथ, क्रमशः क्षीण होता जाता है और उसका ख़ालीपन प्रकट हो जाता है। और जो गंभीर है, उसमें बहुत लोगों की पैठ न होने पर भी वह चिरस्थायी होता है। उसमें जो एक श्रेष्ठता का आदर्श होता है वह सहज ही जीर्ण नहीं होता।

इसमें सन्देह नहीं कि जयदेव का "ललितलवङ्गलता" अच्छा है, परन्तु इसका आनन्द थोड़ी ही देर के लिए है। उसे इन्द्रियाँ मन महाराज के पास ले जाती हैं। मन उसको एक बार छूकर रख देता है। फिर इन्द्रियों के ही भोग में वह समाप्त हो जाता है। अच्छा, "ललितलवङ्गलता" के पास "कुमार-सम्भव" के एक श्लोक को रख कर तो देखो;―