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मयूरध्वनि।

आवर्जिता किश्चिदिव स्तनाभ्यां
वासो बसाना तरुणाकंरागम्।
पर्याप्तपुष्पम्तवकावनम्रा
संचारिणी पल्लविनी लतेव॥

छन्द भी कोई सुन्दर नहीं है, इसके शब्द भी संयुक्त अक्षरों से भरे पड़े हैं। तो भी ऐसा भ्रम होता है कि यह श्लोक ललित-लवङ्ग-लता को अपेक्षा सुनने में भी मधुर लगता है। किन्तु वह भ्रम है। यहाँ मन अपनी सृजन-शक्ति के द्वारा इन्द्रिय-सुख को पूर्ण कर देता है। जहाँ लुब्ध इन्द्रियाँ जमा होकर भीड़ नहीं करतीं वहीं मन को ऐसी नई सृष्टि करने का अवसर मिलता है। "पर्याप्तपुष्प- स्तवकावनम्रा" इसके भीतर लय का जो उत्थान है, कठोरता और कोमलता ने उचित रूप से मिल कर छन्द में जो आन्दोलन पैदा कर दिया है वह जयदेव की कविता के समान अत्यन्त प्रत्यक्ष नहीं है; अत्यन्त गूढ़ है। मन आलस्य के साथ उसको पढ़ नहीं जाता, किन्तु स्वयं आविष्कार करके प्रसन्नता प्राप्त करता है। इसके भीतर जो एक भाव की सुन्दरता है वह भी पाठकों के मन के साथ षड्यन्त्र रच कर कानों से न सुन पड़नेवाले सङ्गीत की रचना करती है। वह सङ्गीत सारे शब्द-सङ्गी को छोड़ कर चला जाता है। उस समय मालूम पड़ता है कि जैसे कान तृप्त हो गये। परन्तु कानों के तृप्त होने की बात नहीं है; मन की माया कानोँ को धोखा देती है।

हमारे इस मायावी मन को स्वयं कल्पना का अवसर न दिया जाय तो वह किसी भी मधुरता को बहुत समय तक मधुर नहीं सम- झता। मन उचित सामग्री पाने से कठोर छन्द को ललित और