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विचित्र प्रबन्ध।

कठिन शब्द को कोमल बना ले सकता है। वह इसी शक्ति को

काम में लगाने के लिए कवियों से अनुरोध करता है।

मियूर-ध्वनि कर्ण-मधुर नहीं है। परन्तु मन में ऐसी शक्ति है कि वह विशेष-अवस्था तथा विशेष-समय में कठिन को भी मधुर सुन सकता है। इस मधुरता का स्वरूप कोकिल की तान की मधु- रता से भिन्न है। नव वर्षा की अवाई के समय पर्वत की तराई- वाले लता-परिवृत प्राचीन गहन वन मेँ जो एक प्रकार की मस्ती आ जाती है, मयूरध्वनि उसी मस्ती का गान है। आषाढ़ में श्यामवर्ण ताल-तमाल-वन के दूने धने अन्धकार में, माता के स्तन-पान की इच्छा से हाथ उठाये सैकड़ों हज़ारों बालकों के समान, अनेक शाखा-प्रशाखाओँ के आन्दोलन-पूर्ण महान् उल्लास के बीच काँसे की झनकार के समान मयूर की ध्वनि उठती है। उसके द्वारा वनस्पति-मण्डली के बीच वन के महोत्सव की सूचना प्रकाशित होती है। कवि का मयूर-ध्वनि का वर्णन उसी वर्षा-काल का गान है। उसकी मधुरता कानों को नहीं मालूम होती। उस मधुरता को मन ही जानता है। इसी कारण उसको सुनकर मन अत्यन्त प्रसन्न होता है। उस मधुरता के साथ मन को समस्त मेघमण्डित आकाश, छाया-पूर्ण वन, नीला पर्वत-शिखर और जड़- प्रकृति के अव्यक्त आनन्द आदि भी प्राप्त होते हैं। मयूर-ध्वनि इन दृश्यों का स्मारक है।

इसी कारण विरहिनी की विरह-वेदना के साथ कवि-वाणी मयूर-ध्वनि का भी वर्णन करती है। मयूर-ध्वनि श्रुति-मधुर होने के कारण विरहिनी को व्लाकुल नहीं करती; किन्तु वह वर्षा के