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मयूरध्वनि।

समस्त दृश्यों को सामने लाकर खड़ा कर देती है; इसी कारण

विरहिनी उसे सुन कर व्याकुल होती है। स्त्री-पुरुष के प्रेम में एक आदिम भाव वर्तमान है। वह भाव वाह्य प्रकृति के बहुत ही पास है। वह जल-स्थल-आकाश आदि से मिला हुआ है। छः ऋतुएँ अपने नये नये फूलों के साथ इस प्रेमभाव को भी अनेक रङ्गों से रँग देती हैं। जो नवीन पत्तों को हिलाता है, नदी मेँ लहरें पैदा करता है, और अन्न के पौधों को कँपाता है, वही इस भाव को भी अपूर्व चञ्चलता से आन्दोलित कर देता है। पूर्णिमा के प्रकाश से इसकी वृद्धि होती है और सन्ध्या की लालिमा से लज्जित होकर यह वधू का वेश धारण करता है। प्रत्येक ऋतु जिस समय जादू की लकड़ी से इस प्रेम को छूती है उस समय यह पुलकित होकर जागे बिना नहीं रहता। वन के पुष्प-पल्लवों के समान यह भी प्रकृति के गुप्त स्पर्श के अधीन है। इसी कारण यौवन के आवेश से कातर कवि कालिदास ने वर्णन किया है कि स्त्री-पुरुषों का प्रेम, छः ऋतुओं के छ: तारों में, किस किस सुर में बजता है। वे जानते थे कि जगत् में ऋतु-परिवर्तन का सबसे प्रधान प्रयोजन प्रेम को उत्तेजित करना ही है। पुष्पों को विकसित करना आदि सभी कार्य गौण हैं। इसी कारण मयूर-ध्वनि वर्षा ऋतु का निषाद स्वर है। उसका धक्का ठीक विरह-वेदना के ऊपर जाकर लगता है। विद्यापति ने लिखा


मत्त दादुरी डाके डाहुकी फाटि जावत छतिया।

यह दादुर का शब्द वर्षाकाल के मत्तभाव के साथ नहीं, घन- घोर वर्षा के निविड़ भाव के साथ ख़ूब मेल खाता है। आज मेघों में