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व्यर्थ बात

व्यर्थ बात

नियमित ख़र्चे से मनुष्य का यथार्थ परिचय नहीं होता, परन्तु व्यर्थ व्यय से मनुष्य का यथार्थ परिचय हो जाता है। क्योंकि मनुष्यों का नियमित ख़र्च बँधा हुआ रहता है और व्यर्थ खर्च मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार करता है।

जिस प्रकार व्यर्थ ख़र्चा है उसी प्रकार व्यर्थ बात भी है। व्यर्थ बातों से हो मनुष्य अपने को प्रकाशित कर देता है। उप- देश की बातें आज ही से नहीं किन्तु मनु के समय से नियमित हैँ। और काम की बातें जिस मार्ग से प्रस्थान करती हैँ वह मार्ग उन कर्मियों के पद-चिह्न से चिह्नित हो गया है। व्यर्थ बातें अपने मन के अनुसार बनाकर कही जाती हैं।

इसी कारण चाणक्य ने एक प्रकार के मनुष्य को बिलकुल चुपचाप रहने की आज्ञा दी है। परन्तु इस समय इस कठोर नियम में कुछ परिवर्तन करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। मेरी समझ से जिन मनुष्यों के लिए चाणक्य के कहे उक्त भद्र पुरुष "तावञ्च शोभते" ( तभी तक सोहत ) हैं जब तक ऊँचे दर्जे की बातें कहते हैं, जब तक सबकी जानी और सब के द्वारा परीक्षित सच्ची बातों की घोषणा करते हैं; परन्तु उस समय उनके लिए आफ़त है जब वे कोई सहज बात अपनी भाषा में कहने का प्रयत्न करते हैं।

जो मनुष्य कहने की कोई ख़ास बात न रहने से कोई बात नहीं कह सकता―या तो वेद-वाक्य कहता है और या चुप बैठा