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व्यर्थ बात

होते हैं। वे गुफा देखकर उसकी तह मेँ पहुँचने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु प्रकाश देखकर उसके साथ ऊपर उड़ने की व्यर्थ चेष्टा नहीं करते। काव्य देखकर ये पूछते हैं―क्या इसमें लाभ की कोई बात है? और जब क़िस्सा-कहानी सुनते हैँ तब उसे अष्टादश-संहिता से मिलाकर भारी अनुसन्धान द्वारा विशुद्ध धर्म-मत से प्रशंसा करने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। जो अकारण है, जो अनावश्यक है उसके अति इन्हें कुछ लोभ नहीं है।

जो दल प्रकाश का उपासक है वह इस दल के लोगों पर प्रेम नहीं करता। वह दल जिन नामों से इस दल को पुकारता है उनका हम अनुमोदन नहीं कर सकते। वररुचि ने इन लोगों को अरसिक कहा है, इसको हम उचित नहीं समझते। इनके विषय में हम लोगों की जो धारणा है उसे हम लोग प्रकाशित नहीं करते। परन्तु हमारे पूर्वज मुँह सँभाल कर बात नहीं करते थे। इसका उदाहरण एक संस्कृत श्लोक मेँ हमें मिलता है। उसमें लिखा है― सिंह के पैने नखों द्वारा हाथी के मस्तक से निकाला हुआ गजमुक्ता वन में पड़ा था, उसे देखकर एक भील की औरत दौड़ती हुई उसके पास आई। उसने उसे उठा लिया। जब उसने उसे दबाकर देखा और समझा कि यह पका हुआ बेर नहीं, मोती है तब उसने उसे दूर फेंक दिया। इससे यह साफ़ मालूम पड़ता है कि प्रयोजन के अनुसार जो लोग किसी वस्तु का मूल्य नियत करते हैं, केवल सौन्दर्य तथा उज्वलता का विकास जिन्हें कुछ भी विचलित नहीं कर सकता, उनकी तुलना कवि ने उस असभ्य स्त्री से की है। मेरी समझ में इनके विषय में कवि चुप ही रहते तो ठीक होता।