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पन्दरह आना।

जिस मनुष्य ने अपने जीवन को आदि से अन्त तक आवश्यक बना डाला है वह निःसंदेह आदर्श पुरुष है। किन्तु सौभाग्यवश उसके आदर्श का अनुसरण अधिक लोग नहीं करते। यदि वैसे मनुष्य बहुतों के आदर्श होते तो आज मनुष्य-समाज वैसें फल के समान बन जाता जिसमें सब बीज ही बीज हो–गूद का नाम भी न हो। जो मनुष्य केवल उपकार करता है उसका अच्छा कहे बिना कोई नहीं रह सकता; किन्तु जो आदमी अनावश्यक है उसको लोग प्यार करते हैँ।

क्योंकि अनावश्यक मनुष्य सब तरह से अपने को दे सकता है। संसार का उपकारी मनुष्य केवल उपकार के तंग पहलू से ही हमारे एक अंश को स्पर्श करता है; और सब ओर से उपकारिता की भारी दीवार उसे घेरे रहती है। उसका केवल एक ही द्वार खुला रहता है, उसी द्वार पर हम हाथ फैलाते हैं और वह दान करता है। और, हमारा अनावश्यक मनुष्य किसी काम का नहीं है, इसी कारण उसके चारों ओर कोई घेरा नहीं है। वह हमारा सहायक नहीं है, वह तो सिर्फ हमारा साथी है। उपकारी मनुष्य के पास से हम प्राप्त करते हैं, और अनावश्यक मनुष्य के साथ मिल कर ख़र्च करते हैं। जो हमारा ख़र्च करने का साथी है वही हमारा मित्र है।

विधाता के प्रसाद से हरिण के सींग और मोर की पूँछ के समान संसार के अधिकांश लोग अनावश्यक के अन्तर्गत है। हम लोगों में अधिकांश मनुष्यों का जीवन-चरित लिखने के योग्य नहीं है और यह भी सौभाग्य की बात है कि हम लोगों में से अधिकांश मनुष्यों की मृत्यु होने के पीछे उनके स्मारक में पत्थर की मूर्ति