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पन्दरह आना।

लोग कुछ पकड़े ही रहते हैं। हम लोग आते हैं और चले जाते हैं। संसार के सब गान हमारे ही द्वारा ध्वनित होते हैं। संसार की सारी छाया हमारे ही ऊपर हिलती-डुलती है। हम लोग हँसते हैं, रोते हैं, प्रेम करते हैं, मित्रों के साथ अकारण खेलते हैं, स्वजनों के साथ अनावश्यक वार्तालाप करते हैं, दिन का अधिक भाग अपने आस पास के लोगों से निरर्थक बातें कर बिता देते हैं, तदनन्तर धूमधाम से लड़के का ब्याह करते हैं और उसे आफ़िस में नौकर रखाकर, पृथ्वी पर कोई प्रसिद्धि न छोड़ कर, अन्त में मरकर राख हो जाते हैँ। संसार की जो विचित्र और विशाल तरङ्गें उठती हैं उनका हम लोग एक अङ्ग हैं। हम लोगों के छोटे मोटे हँसी-खेल से ही सारा जन-प्रवाह झलमला रहा है― हमारे छोटे-मोटे रोने―गाने से ही समाज भर गूँज रहा है।

हम लोग जिसको व्यर्थ कहते हैं, प्रकृति का अधिक भाग वहीं है। सूर्य-किरणों का अधिक भाग शून्य में ही प्रकाश फैलाता है। वृक्षों में कलियाँ थोड़ी ही देर―फल न लगने तक ही― टिकती है। इसका विचार वे ही कर सकते हैँ जिनका यह धन है। यह व्यय अपव्यय है कि नहीं, इसका निर्णय विश्वकर्मा की बही देखे बिना नहीं हो सकता। इसी प्रकार हम लोगों में भी अधिकांश मनुष्य परस्पर साथ देने और एक दूसरे को चलाने आदि कार्यों के अतिरिक्त और किसी काम के नहीँ हैं। इस कारण अपने को या और किसी को दोष देना अथवा घबराना उचित नहीं है। प्रसन्नता-पूर्वक हँसते और गाते यदि हम लोग इस निभृत जीवन के अन्त होने के बीच ही शान्ति पा सकें तो यह निश्चित समझना