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नववर्षा।

है, और न केवल मस्तक में बल ही पड़ गये हैं किन्तु मेरे दुःख के आघात ने इस पृथिवी पर भी―जो हम लोगों के चारों ओर वर्तमान है―अपना चिह्न अंकित कर दिया है। पृथिवी का जल- स्थल आदि भी मेरी वेदना से क्षत-विक्षत और मेरी चिन्ता से चिह्नित हो गया है। जिस समय मुझ पर अस्त्र-प्रहार हुआ है उस समय मेरे चारों ओर की पृथिवी मुझे छोड़कर दूर नहीं हट गई― वाण ने मुझको घायल कर उसको भी घायल किया है। इस प्रकार मेरे सुख-दुःखों मेँ साथ देने के कारण पृथिवी मेरी ही हो गई है।

परन्तु मेघ में मेरा कोई चिह्न नहीं है। वह पथिक है, आता है और चला जाता है, टहरता नहीं। मेरी वृद्धावस्था उसको छूने का अवकाश नहीं पाती। मेरी आशा और निराशा से वह बहुत दूर है।

इसी कारण कालिदास ने उज्जयिनी के महल की चोटी पर से जिस आषाढ़ के मेघ को देखा था उसीको हमने भी देखा है। इस बीच में बदल रहे मनुष्य के इतिहास ने उस मेघ को छुआ तक नहीं किन्तु आज वह अवन्ती और विदिशा नगरी कहाँ है। मेघदूत का मेघ हर माल चिर-नवीन तथा चिर-पुरातन बनकर देख पड़ता है। किन्तु विक्रमादित्य की उज्जयिनी पुरी, जो मेघों की अपेक्षा दृढ़ थी, आज स्वप्न की तरह नष्ट हो गई है। इच्छा करने पर भी आज उसका दर्शन होना कठिन है।

इसी कारण मेघ देखने से 'सुखिनांऽप्यन्यथावृत्तिचेतः' सुखी भी अन्यमनस्क हो जाते हैं। मेघ का मनुष्य लोक से कोई सम्बन्ध नहीं है, इस कारण वह मनुष्योँ को उनको चिरपरिचित सीमा से बाहर ले जाता है। मेघ के साथ हमारी नित्य की चिन्ता, चेष्टा