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नववर्षा।

पृथिवी को भी खींचकर पकड़ लिया है। हम अपने और पृथिवी के बीच में कोई भी रहस्य नहीं देखते, इसी कारण हमारी उत्कण्ठा भी नहीं है, हम शान्त होकर बैठे हैँ। मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं अपने को अच्छी तरह जानता हूँ और अपनी पृथिवी को भी अच्छी तरह जानता हूँ। इसी समय पूर्व दिशा की ओर से घने अन्धकार को फैलाता हुआ वहीं पुराना, कई शताब्दी पहले का, कालिदास का मेघ आकर उपस्थित होता है! वह मेघ न मेरा है, और न मेरी पृथिवी का है। वह मुझे किसी अलकापुरी, किसी नित्ययौवन के राज्य, चिर-विरह की वेदना, चिर-मिलन के आश्वास, नित्य-सौन्दर्यमयी कैलासपुरी के मार्ग-चिह्न-हीन तीर्थ, की ओर घसीट कर लेजाने का प्रयत्न करता है! पृथिवी का जो कुछ मुझे मालूम है वह उस समय तुच्छ जँचता है; जो जाना नहीं वही बड़ा हो उठता है। जो मिला नहीं वही, मिली हुई वस्तु की अपेक्षा, अधिक सत्य प्रतीत होने लगता है। मुझे मालूम होता है कि मैंने अपने जीवन और अपनी शक्ति पर बहुत ही कम अधिकार कर पाया है। जो बृहत् है उसे मैं छू भी नहीं सका।

मेरे नित्य के कर्म-क्षेत्र को, नित्य-परिचित संसार को ढँक कर सजल मेघों से परिपूर्ण नवीन वर्षा मुझे एकदम किसी अज्ञात भाव-लोक के भीतर, सब विधि-विधानों के बाहर, अकेले ले जाकर खड़ा कर देती है। वह पृथिवी की इस परिमित आयु से निकाल कर भारी परमायु के बीच मुझे स्थापित कर देती है। मुझे राम-गिरि-आश्रम के निर्जन पर्वत-शिखर पर शिलातल के ऊपर बिना सङ्गी-साथी के अकेला ही छोड़ देती है। याद पड़ता है कि उस