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विचित्र प्रबन्ध।

निर्जन शिखर और मेरे किसी पुराने निवास स्थान―अन्तरात्मा के चिर-प्रार्थनीय स्थान―अलकापुरी के बीच में एक बहुत बड़ा और सुन्दर मैदान पड़ा हुआ है। वह आज तक भी स्मरण आता है। उस मैदान में नदियों का प्रवाह प्रतिध्वनित हो रहा है, बड़े बड़े पर्वत शिखर-रूपी सिर उठाये खड़े हैं, जम्बू की छाया का अन्धकार छाया हुआ है, और नव-जल-सिञ्चित जूही की महक चारों ओर फैल रही है। हम लोगों का हृदय इस पृथिवी के वन- वन, गाँव-गाँव, पर्वत-पर्वत तथा नदी के तीर-तीर घूमता फिरता, उस अपरिचित परन्तु सुन्दर स्थान का परिचय प्राप्त करता है, और अपने दीर्घ विरह के अन्त में―मानस-सरोवर के लिए उत्कण्ठित हँस के समान-मोक्ष-स्थान पर पहुँचने के लिए उत्कण्ठित रहता है।

मेघदूत को छोड़ नव-वर्षा-विषयक काव्य और कहीं किसी भी साहित्य मेँ नहीं है। मेघदृत में वर्षा-काल को समस्त भीतरी वेद- नाओं का वर्णन नित्य-समय की भाषा में किया गया है। उनमें प्रकृति के प्रति वर्ष होने वाले मेघ महोत्सव की अनिर्वचनीय कवित्वगाथा मनुष्य-भाषा मेँ गाई गई है।

पूर्व-मेघ मेँ एक बहुत बड़ी पृथिवी हमारी कल्पना के आगे प्रकट हो जाती है। जिस समय हम लोग धनी गृहस्थ बन कर अपने घर सन्तोष से सुख-पूर्वक आँखें बन्द किये बैठे थे उसी समय कालिदास के मेघ ने―"आषाढस्य प्रथमदिवसे"―आषाढ़ के पहले दिन अकस्मात् आकर हमें घर से बाहर निकाल कर खड़ा कर दिया। हम लोगों के घर से बहुत दूर पर जो आवर्त- चञ्चला नर्मदा वेग से बहती जा रही है, जो चित्रकूट की तरहटी