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पर-निन्दा।

दोषों को दूर करना ही कुछ निन्दा का कार्य नहीं है किन्तु महत्व को गौरवान्वित करना निन्दा का एक बड़ा भारी काम है।

निन्दा―विरोध बुरा नहीं लगता, ऐसी बात बहुत कम लोग ही कह सकते हैं;-और काई सहृद यमनुष्य तो कही नहीं सकता। जिनका हृदय विशाल है उनकी व्यथा पाने की शक्ति भी अधिक होती है। जिसके पास हृदय है, संसार में वही किसी अच्छे काम में हाथ डाल सकता है। उधर किसी अच्छे काम का आरम्भ देखते ही निन्दा की धार चौगुनी पैनी हो उठती है। इस प्रकार यह देख पड़ता है कि विधाता ने जिमको अधिक अधिकार दिया है उसी को कठिन दुग्न सहना पड़ता है और उसी की कठिन परीक्षा भी होती है। विधाता के इसी विधान की सदा जय हो। निन्दा, दुःख, विरोध आदि ख़ास कर अच्छे मनुष्यों―गुणी मनुष्यों―को ही नसीब हुआ करें। व्यथा उसी को मिले जिसमेँ व्यथा सहने की पूरी शक्ति है। क्षुद्र अयोग्य को निन्दा की व्यथा मिलना एक प्रकार से निन्दा की वेदना का अनावश्यक ऐपव्यय है।

सरल-हृदय पाठक फिर कहेंगे―मालूम है, निन्दा से उप- कार होता है। जो दोषी हैं उनके दोष की घोषणा होना अच्छा है। परन्तु जो दोषी नहीं, उसकी निन्दा होनी उचित नहीं। उसकी निन्दा से संसार में भलाई नहीं हो सकती। मिथ्या से कभी भलाई की सम्भावना नहीं की जा सकती।"

परन्तु दोषी के दोष की घोषणा को तो निन्दा नहीं कह सकते। प्रमाणों के आधार पर दोषी को दोषी साबित करना तो निन्दा नहीं है, वह तो निर्णय कहाता है। यह कठिन काम कौन अपने