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पर-निन्दा

ऐसी बात कहनेवाले अवश्य ही सहृदय मनुष्य हैं। अतएव उनको स्वयं विचार करके देखना चाहिए कि निन्दा से निन्दित व्यक्ति को तो व्यथा होती ही है, उस पर यदि निन्दा करनेवाले को भी उससे व्यथा हो तो इस संसार में दुःख-वेदना की मात्रा कितनी अपरिमित हो उठेगी! उस समय जिधर देखेंगे उधर ही दुःख ही दुःख दृष्टिगोचर होगा। पण्डितों की सभा, निमन्त्रण सभा चुप हो जायगी, मित्रों की मण्डली दुःख-विषाद से व्याकुल हो जायगी, समालोचक की आँखों में आँसू भरे रहेंगे, और पाठकों के हृदय से बार बार गर्म घनी लँबी साँसें निकलने लगेंगी। मुझे तो विश्वास है कि शनि-लोक के निवासियों की भी ऐसी दशा न होगी!

इसके सिवा, सुख भी न पावेंगे और निन्दा भी करेंगे,-मनुष्य जाति मेँ ऐसी भयानक निन्दकता नहीं है। विधाता ने मनुष्य जाति को ऐसा शौक़ीन बनाया है कि जिस भोजन से उसका पेट भरता और प्राण-रक्षा होती है, उसमें सुधा-निवृत्ति के साथ साथ रुचि की तृप्ति का सुख भी उसे चाहिए। वही मनुष्य ट्रामगाड़ी का किराया ख़र्च कर के अपने मित्रों के घर जाकर पर-निन्दा कर आवेगा और उसमें उसको सुख भी नहीं मिलेगा? जो धर्मनीति मनुष्य से इस प्रकार की असंभव प्रत्याशा करती है, वह पूजनीय तो है, परन्तु पालनीय नहीं।

सभी आविष्कारों मेँ सुख है। यदि मृग सब जगह पाये जाते तथा वे व्याध को देख कर भाग न जाते तो शिकार से लोगों को कुछ भी सुख न मिलता। यह बात नहीं है कि मृगों से हम लोगों