पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५९
पर-निन्दा।

मात्रा नहीं है। यह बात उसे समझाना कठिन है कि सत्य अगर बाहर है, तो भी वह सत्य है और भीतर जो छिपा हुआ है वह यदि सत्य नहीं है तो कभी सत्य नहीं हो सकता। पदार्थों का छिपा रहना ही उनके सत्य होने की परिभाषा नहीँ है। इसी मोह के कारण काव्यों के सहज और सरल सौन्दर्य की अपेक्षा उनके गूढ़ तत्त्व का अधिक सत्य समझ कर पाठकगण उसका अधिक आदर करते हैं। ऐसे ही जो विज्ञ मनुष्य कहाते हैं वे छिपे हुए पाप को प्रकाशित साधुता की अपेक्षा अधिक सत्य समझ कर उस पर विशेष ध्यान देते हैं। अतएव साधारणतः मनुष्यों का यह विश्वास है कि किसी मनुष्य की निन्दा ही उसका यथार्थ परिचय है। संसार में ऐसे लोग बहुत ही थोड़े हैं जिनके साथ हम लोग घर का ऐसा व्यवहार करते हैं; तब सैकड़ो मनुष्यों का यथार्थ परिचय लेने से हमेँ क्या लाभ है? किन्तु यथार्थ परिचय के लिए व्यग्र होना मनुष्य का स्वभाव-सिद्ध धर्म है। वह मनुष्यत्व का प्रधान अङ्ग है। अतएव उससे झगड़ा नहीं किया जा सकता। केवल जब कभी दुःख करने के लिए लंबी छुट्टी मिलती है तब यह सोचते हैं कि जो सुन्दर है, जो सम्पूर्ण है, जो फूल के समान बाहर विकसित होकर देख पड़ता है, वह वह छिपा नहीं है, इसी कारण बुद्धिमान् मनुष्य धोखा खाने के डर से उस पर विश्वास नहीं करते और न उस पदार्थ से आनन्द उठाने का ही साहस करते हैं। क्या ठगा जाना ही संसार में सबसे बड़ी हानि है! और ठगा न जाना ही सब से बढ़कर लाभ है!

किन्तु इन बातों पर विचार करने का भार मेरे ऊपर नहीं है