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विचित्र प्रबन्ध।

क्योंकि मेरे जन्म के बहुत पहले ही मनुष्य का चरित्र बन कर तैयार हो चुका है। मैं केवल यही समझने और समझाने का प्रयत्न कर रहा था कि मनुष्य साधारणत: निन्दा करके जो सुख पाता है वह विद्वेष का सुख नहीं है, क्योंकि साधारणत: विद्वेष सुख-कर हो ही नहीं सकता। विद्वेष जब समाज की नस-नस मेँ व्याप्त हो जाता है तब उस विष को पचा जाना समाज के लिए असाध्य हो जाता है। हमने बहुत से अच्छे और सीधे सादे लोगों को भी निन्दा करते देखा है। इसका कारण यह नहीं है कि संसार में अच्छे और निरीह मनुष्य ही नहीं हैं। किन्तु इसका कारण यह है कि साधारणतः निन्दा का मूल भाव बुरा नहीं है।

किन्तु संसार में विद्वेष से निन्दा की ही नहीं जाती,―इस बात को लिखना चाहें तो सत्ययुग की अपेक्षा करनी पड़ेगी। हाँ, इस प्रकार की निन्दा के विषय में कुछ अधिक कहना नहीं है। केवल प्रार्थना यही है कि जो इस प्रकार की निन्दा करना अच्छा समझते हैं उन अभागों पर हम दया दिखला सकें!


वसन्त

इस मैदान के उस पार शाल-वन की नई कोपलों के बीच वसन्त की हवा डोलने लगी है।

अभिव्यक्ति के इतिहास में मनुष्य का एक अंश वृक्षों के साथ जकड़ा हुआ है। किसी समय हम लोग शाखामृग ( बन्दर ) थे, जिसका यथेष्ट परिचय आज भी हम लोगों के स्वभाव से मिलता