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विचित्र प्रबन्ध।

की सार्थकता है। आज हम लोगों की युग-युगान्तर की बड़ी बहन वनलक्ष्मी के यहाँ भाई-दूज का निमन्त्रण है। आज वहाँ तरु-लताओं के साथ बहुत ही सगे की तरह मिलना होगा। आज का दिन वृक्षों की छाया में रहकर बिताना होगा। जिस समय वसन्त की हवा चलेगी उस समय उसके आनन्द को मैं अपने हृदय की प्रत्यक तह में अनायास प्रवेश करने दूँगा और इसका ध्यान रक्खूँगा कि वह आनन्द वहाँ ऐसी कोई ध्वनि न उत्पन्न करे जिसकी भाषा को वृक्ष आदि न समझ सकें। इस प्रकार चैत्र के अन्त तक मिट्टी, हवा और आकाश के बीच अपने जीवन को इस प्रकार कच्चा―हरा―बना कर छोड़ दूँगा कि वह प्रकाश और छाया में चुपचाप पड़ा रह सके; प्राकृतिक आनन्द का उपभोग कर सके।

किन्तु हाय, कोई भी काम बन्द नहीं रह सका। हिसाब का खाता वैसे ही खुला हुआ है। नियम की कल में, कर्म के फन्दे में पड़ गया हूँ। इस समय वसन्त के आने और जाने से क्या होता है!

मनुष्य-समाज के आगे मेरा यही सविनय निवेदन है कि यह अवस्था ठीक नहीं है। इसका संशोधन होना उचित है। संसार के साथ अपना कोई सम्बन्ध न रखने से ही मनुष्य का गौरव नहीं हो सकता। संसार की सभी विचित्रताएँ मनुष्य में हैं, इसी कारण मनुष्य बड़ा समझा जाता है। मनुष्य जड़ के साथ जड़, वृक्ष-लता के साथ वृक्ष-लता और मृग-पक्षी आदि के साथ मृग-पक्षी है। प्रकृति महारानी के राजभवन के भिन्न भिन्न महलों के सभी द्वार उसके लिए खुले हैं। परन्तु उनके खुले रहने से क्या होगा? प्रत्येक