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असम्भव कहानी।

ऋतु में प्रकृति के एक एक महल से जब उत्सव का निमन्त्रण आता है तब यदि मनुष्य उस निमन्त्रण को अस्वीकार करके अपनी आढ़त की गद्दी पर ही पड़ा रहे तो उसने इतना बड़ा अधिकार क्यों पाया? पूर्ण मनुष्य होने के लिए मनुष्य को सब कुछ होना होगा, ―इस सत्य सिद्धान्त को भूल कर मनुष्य ने मनुष्यत्व को विश्व-विद्रोह का झण्डा बनाकर क्यों खड़ा कर रक्खा है? क्यों मनुष्य घमण्ड के साथ बार बार यही कहता है कि हम जड़ नहीं हैं, वृक्ष नहीं हैं, पशु नहीं हैं; किन्तु मनुष्य हैँ। हम केवल काम करते हैं, समालोचना करते हैं, शासन करते हैं, और विद्रोह करते हैँ। वह क्यों नहीं यह कहता कि हम सभी हैं, संसार के सभी पदार्थों के साथ हमारा सम्बन्ध है,―स्वतन्त्रता का झण्डा हमारा नहीं है!

हाय रे समाज के पिंजड़े में रहनेवाले पक्षी! आकाश की नीलिमा आज विरहिनी की―स्वप्न के आवेश से पूर्ण―दोनों आँखों के समान है, पत्तों का हरा रङ्ग आज तरुणी के कपोलों के समान नवीन है, बसन्त की हवा आज मिलन के आग्रह के समान चञ्चल है, तो भी आज तेरे दोनों पँख बँधे हुए हैं―तो भी आज तेरे पैरों में कर्म की जंजीर झन् झन् करके बज रही है। यही क्या मानव-जन्म है!


असम्भव कहानी

एक राजा था।

उस समय इससे अधिक जानने की आवश्यकता नहीं थी कि कहाँ का राजा था, उसका नाम क्या था? इन सब प्रभों को पूछ