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असम्भव कहानी।

के भिन्न भिन्न मतों की समालोचना करके जब ग्रन्थ के नायक तीसरे अजातशत्रु तक लेखक पहुँचता है तब पाठक सहसा कह उठता है―वाह वाह, कैसा पाण्डित्य है! यह कहानी सुनने में कितनी अच्छी अच्छी बातें मालूम हुईं! कितनी शिक्षा मिली! अब इस मनुष्य पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। फिर पाठक कहता है―अच्छा लेखक महाशय कहिए, आगे क्या हुआ?

हाय, मनुष्य ठगा जाना ही चाहता है। ठगा जाना मनुष्य को बहुत पसन्द है। किन्तु वह मन ही मन इस बात से डरता भी है कि कोई हमको निर्बोध न समझ ले। इसीलिए वह प्राणपन से चालाक होने का प्रयत्न करता हैं। इसका फल यह होता है कि वह अन्त में ठगा तो जाता है, परन्तु बड़े आडम्बर और आयोजन से।

अँगरेज़ी में एक कहावत है―"पूछो मत, नहीं तो झूठा उत्तर सुनना पड़ेगा।" बालक इस बात को समझता है, इसी कारण वह कोई प्रश्न नहीं करता। अतएव कहानी का मिथ्या भाग बालक की तरह नंगा (खुला हुआ), सत्य के समान सरल और फुहारे के समान स्वच्छ होता है। और आज-कल का चातुरी-पूर्ण झूठ नक़ाब डाले रहता है। यदि कहीं तिल भर भी छिद्र रह जाता है तो सब मिथ्या प्रकाशित हो जाता है। पाठक विमुख हो जाते हैँ और लेखक को भागने की राह नहीं मिलती।

बाल्यावस्था में हम लोगों में सच्ची रसज्ञता थी। अतएव जब हम कहानी सुनने बैठते थे, सब ज्ञान-लाभ के लिए हमारे हृदय में कुछ भी आग्रह न होता था। हमारा अशिक्षित हृदय ठीक