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विचित्र प्रबन्ध।

ठीक समझ लेता था कि असल बात क्या है। और, आज-कल कहानी कहने में बहुत अधिक बकना पड़ता है, बहुत सी अना- वश्यक बातें भी आवश्यक हो जाती हैं। परन्तु अन्त में सार इतना ही निकलता है कि एक राजा था।

ठीक ठीक स्मरण है कि उस दिन सन्ध्या-समय पानी बरस रहा था। समूचा कलकत्ता जलमय हो गया था। गलियों में घुटने घुटने भर पानी भरा हुआ था। पूरी आशा थी कि आज मास्टर साहब नहीँ आवेंगे। पर तो भी उनके आने के नियत समय तक कुछ कुछ उनके आने का भय बना हुआ था। अतएव ऊपर बरा- मदे में कुरसी रखकर उस पर बैठा हुआ मैं राह की ओर देख रहा था। जब पानी ज़ोर से बरसने लगता था तब एकाग्र चित्त से यही प्रार्थना करता था कि हे देवता, कुछ और अधिक बरसो। किसी प्रकार सायंकाल के साढ़े सात बजे तक ज़ोर से बरसते रहो। उस समय मन में यही सोचता था कि संसार में पानी बरसने की और कोई आवश्यकता नहीं है। पानी बरसने का मुख्य प्रयोजन नगर में मास्टर के भय से व्याकुल एक बालक की रक्षा करने के अतिरिक्त दूसरा नहीं है। पहले किसी एक निर्वासित यक्ष ने भी तो समझा था कि आषाढ़ के मेघ का और कोई विशेष काम नहीं है; अतएव रामगिरि के शिखर से एक विरही का दुःख-संवाद ले जाकर संसार के बाहर, अलकापुरी के एक महल के झरोखे में, एक विरहिनी के पास पहुँचाना―ख़ास कर जब मार्ग इतना सुन्दर और मनोहर है तथा हृदय की वेदना इतनी प्रबल है―उसके लिए कुछ कठिन नहीं है।