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असम्भव कहानी।

बालक की प्रार्थना के कारण चाहे न हो, किन्तु धूम-ज्योति-सलिल-मरुत के किसी विशेष नियम के ही अनुसार, पानी बरसना बन्द नहीं हुआ। पर हाय, तो भी मास्टर ने पीछा न छोड़ा। नियत समय पर गली के मोड़ पर एक परिचित छाता देख पड़ा। देखते ही मेरी सब आशा भाप की तरह उड़ गई। मेरा हृदय जैसे पसलियों से चिपक गया। यदि पर-पीड़न के पाप का उचित दण्ड मिलता है तो निश्चय ही आगे के जन्म में मैं मास्टर होऊँगा और मास्टर मेरे विद्यार्थी होंगे। पर उसके विरुद्ध एक आपत्ति यह है कि मास्टर के मास्टर बनकर दूसरा जन्म लेने से बहुत ही असमय में मुझे इस संसार से बिदा होना पड़ेगा। इस कारण मैं हृदय से मास्टर के अपराधों को क्षमा करता हूँ।

छाता देखते ही मैं दौड़ कर भीतर चला गया। उस समय माता बुआ के साथ उनके सामने बैठ कर चौपड़ खेल रही थीं। मैं वहीं एक किनारे जाकर लेट हरा। माता ने पूछा, क्या हुआ? मैंने मुँह लटका कर कहा―मेरी तबीयत आज अच्छी नहीं है, मैं आज मास्टर के पास पढ़ने न जाऊँगा।

आशा है, कोई बालक मेरे इस लेख को नहीं पढ़ेगा, और स्कूल के किसी सिलेक्शन पुस्तक मेँ भी यह उद्धृत नहीं किया जायगा। क्योंकि मैंने जो काम किया था वह नीति-विरुद्ध है और उसके लिए मुझे कोई दण्ड भी नहीं मिला था। बल्कि उससे मेरा अभिप्राय सिद्ध होगया।

माता ने नौकर को बुला कर कहा―आज पढ़ना न होगा; मास्टर से कहो कि आज जायँ।