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विचित्र प्रबन्ध।

इसके अनन्तर माता ने फिर चौपड़ खेलने में मन लगाया। वह कुछ भी विचलित नहीं हुई। इससे यह स्पष्ट मालूम हो गया कि पुत्र के रोग के उत्कट लक्षणों को मिला कर―देख कर―माता मन ही मन हँसने लगीं। मैं भी ख़ुशी के मारे तकिये में मुँह छिपाकर ख़ूब हँसा। माता ने मेरे मन की और मैंने माता के मन की बात जान ली।

किन्तु यह सभी जानते हैं कि इस प्रकार के रोग को बहुत देर तक बनाये रखना रोगी के लिए बहुत ही कठिन होता है। कुछ मिनटों के भीतर ही मैं बुआ पीछे पड़ गया और कोई कहानी कहने के लिए उन्हें तंग करने लगा। तीन चार बार कहने से कोई उत्तर नहीं मिला। फिर माता ने कहा―ठहरो बेटा, पहले यह खेल समाप्त हो जाने दो।

मैंने कहा―नहीं माँ, अपना खेल तुम कल समाप्त करना, आज बुआ को कहानी कहने दो।

माता चौपड़ की बिसात लपेट कर बुआ से कहने लगीं― जाओ भाई जाओ, इससे भला कौन पेश पा सकता है।

सम्भव है, माता ने मन ही मन यह सोचा हो कि मेरा तो कोई मास्टर नहीं है, जो कल फिर पढ़ाने आवेगा। मैं कल भी खेल सकती हूँ।

मैं बुआ का हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ एकदम मसहरी के बिछौने पर जाकर बैठ गया। पहले तकिया लगा कर हाथ-पैर फैला कर मैं लेट रहा और थोड़ी देर तक मन के आनन्द का उपभोग करता रहा। अन्त को मैंने कहा―बुआ, कोई कहानी कहो।