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विचित्र प्रबन्ध।

कहती थी कि हाय, मेरी प्राणों की प्यारी बेटी क्या सदा बिन ब्याही ही रहेंगी? हाय, मेरे भाग्य में क्या लिखा है!

अन्त को रानी ने बहुत ही अनुनय-विनय के साथ राजा के पास यह कहला भेजा कि मैं और कुछ नहीं चाहती, आप एक दिन के लिए घर आइए, और भोजन करके फिर लौट जाइएगा।

राजा न कहला भेजा―अच्छा।

रानी ने उस दिन भोजन के लिए बड़ी तैयारियाँ कीं। उसने अपने हाथ से चौसठ प्रकार के व्यंजन बनाये। सोने के थाल और चाँदी के कटोरे-कटोरियों में उसने भोजन परोसा। चन्दन का पीढ़ा डाल दिया। राजकुमारी हाथ में चँवर लेकर खड़ी हुई।

राजा आज बारह वर्ष के बाद अपने महल में लौट आकर भोजन करने बैठा। राजकुमारी अपनी सुन्दरता का प्रकाश फैलाती हुई चँवर डुला रही है।

राजा कन्या के मुँह की ओर एकटक ताकने लगा, भोजन न कर सका। अन्त को उसने रानी की ओर देख कर पूछा―रानी, यह सोने की प्रतिमा के समान सुन्दरी लक्ष्मी कौन है? यह किसकी बेटी है?

यह सुन कर रानी ने अपना सिर धुनकर कहा―हाय रे मेरे अभाग्य! आप इसको नहीं पहचानते! यह आपही की कन्या तो है।

राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा―मेरी कन्या, जो अभी उस दिन छोटी सी थी, आज इतनी बड़ी होगई!