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विचित्र प्रबन्ध।

समय बालक-हृदय के विश्वास-परायण रहस्यमय और अप्रकाशित एक छोटे भाग में यह संभवपर चित्र नहीं अङ्कित हो उठा कि वह भी किसी दिन सबेरे किसी राजा के राजमहल के द्वार पर लकड़ियाँ जमा कर रहा है; अकस्मात् लक्ष्मी के समान राजकन्या से उसका ब्याह होगया। राजकन्या के माथे पर सेंदुर, कानों में कर्णफूल, गले में हार, हाथों में कंगन, कमर में करधनी और महावर से रँगे पैरों में नूपुर झम झम बज रहे हैं।

परन्तु मेरी बुआ यदि लेखक होकर जन्म लेतीं और आज-कल के चतुर पाठकों के सामने उन्हें यह कहानी कहनी पड़ती तो इतने ही में उनको न मालूम कितनी शंकाओं का समाधान करना पड़ता। सबसे पहले तो यही, कि राजा बारह वर्ष तक वन में रहे और राजकन्या तब तक व्याही नहीं गई। इस बात को सब श्रोता असम्भव कहते। यदि इस शंका का समाधान किसी प्रकार हो जाता और पाठक मान भी लेते, तो राजकन्या के वर के बारे में भारी आपत्ति उठती। एक तो ऐसा होना ही असम्भव ठह- राया जाता, दूसरे लेखक पर यह दोषारोप किया जाता कि क्षत्रियकन्या के साथ ब्राह्मण-बालक का व्याह कराकर वह समाज- विरुद्ध मत का प्रचार कर रहा है। पाठक तो वैसे लड़के नहीं हैं, वे तो लेखक के नाती-पोते नहीं हैं कि सब बातें चुपचाप सुन लें। के लेखक की लिखी कहानी की अख़बार मैं समालोचना करेंगे। असएव मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि बुआ यदि फिर जन्म लें तो बुआ हो कर ही, अभागे भतीजे के समान ग्रह-दोष से उन्हें लेखक न बनना पडे।