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विचित्र प्रबन्ध।

मैं किसी का भी लक्ष्य नहीं हूँ, मैं सबका उपाय भर हूँ। मैं किसी का घर नहीं हूँ, किन्तु सबको उनके घर पहुँचा देता हूँ। जिनका घर बड़ी दूर है वे मुझे ही गालियाँ देते हैं। यद्यपि मैं धैर्य के साथ उन्हेँ उनके घर पहुँचा देता हूँ, तो भी कोई मेरा कृतज्ञ नहीं होता। घर में पहुँचने पर विश्राम मिलता है, आनन्द मिलता है। सुग्व-सम्मिलन होता है। और, मेरे ऊपर रहने से केवल थकन का बोझ, कवल अनिच्छा-कृत परिश्रम, केवल वियोग भोगना पड़ता है।

जिस समय छोटे छोटे कोमल पैर मेरे ऊपर होकर चलते हैँ उस समय मुझे अपना अंग बड़ा कठोर जान पड़ता है। मालूम होता है कि उनके पैरों मेँ मेरा कठिन शरीर गड़ता है! तब मुझे कुसुम-दल-कोमल बनने की इच्छा होती है! राधिका ने कहा था―

जहँ जहँ अरुण चरण चलि जाता।
तहँ तहँ धरणि होहि मृदु गाता॥

अरुण-चरण इस कठिन पृथिवी पर क्यों चलते हैँ! पर यदि वेन चलते तो आज कहीं पर हरी घास न उगती!

बहुत दिन हुए, ऐसे ही कोमल चरणों से कोई प्रति दिन तीसरे पहर बहुत दूर से आता था; उसके छोटे छोटे पैरों में नूपुर रुनुक झुनुक कर बजते थे। जहाँ इस वट वृत्त की बाई और मेरी एक शाखा बस्ती की ओर गई हैं, वहीं पर, वह थके हुए शरीर से पेड़ के नीचे चुपचाप खड़ी रहती थी। और एक आदमी दिन के सब कामों को समाप्त करके अन्यमनस्क भाव से उसी समय बस्ती की ओर चला जाता था। उसके चले जाने पर वह बालिका, थके