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राजपथ।

पैरों से, जिस मार्ग से आई थी उसी मार्ग से लौट जाती थी। बालिका जिस समय लौटती थी तब मुझे जान पड़ता था कि अन्धकार हो आया है। उस समय गोधूलि बेला का कौओं का बोलना बन्द हो जाता था, बटोहियों का आना-जाना कम होने लगता था। सन्ध्या की हवा से रह रह कर बाँस-बन मेँ झरझराहट का शब्द उठता था। इसी प्रकार कितने ही दिन तक―प्राय: प्रति दिन―वह बालिका धीरे धीरे आती और धीरे धीरे चली जाती थी। एक दिन, फागुन के आख़िरी दिनों में, तीसरे पहर जब आम के बौर हवा से झर झर कर गिरते थे, वह आदमी नहीं आया जो कि आता था। उस दिन वह बालिका बड़ी रात गये घर को लौट गई। जिस प्रकार बीच बीच मेँ वृक्षों से सूखे पत्ते गिरते थे, उसी प्रकार वह बालिका अपने आँसुओं को मेरी नीरस तपी हुई धूल पर गिराती जाती थी। दूसरे दिन तीसरे पहर फिर भी वह बालिका उसी वृक्ष के नीचे आकर खड़ी हुई, पर उस दिन भी वह दूसरा आदमी नहीं आया। फिर वह बालिका रात को धीरे धीरे घर लौट गई। थोड़ी दूर तक चलने पर उससे आगे चला न गया। मेरे ऊपर धूल मेँ गिर कर वह लोटने लगी-दोनों हाथों से अपनी आँखें बन्द कर फूट फूट कर रोने लगी। कौन हो तुम बेटी! इस सन्नाटे की रात में, मेरी छाती पर भी, क्या कोई आश्रय लेने आता है?

इस प्रकार के कितने ही चरणों के शब्द चुप हो गये हैं, मैं क्या उन सब को स्मरण रख सकता हूँ! मुझे क्या घड़ी भर भी शोक करने का अवसर है!

कैसी कड़ी धूप है। ओह ओह! मैं साँस लेता हूँ और तपी