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विचित्र प्रबन्ध।

हुई धूल नीले आकाश को मलिन बनाती हुई उड़ जाती है। धनी- दरिद्र, सुखी-दुःखी, वृद्ध-युवा, हँसना-रोना, जन्म और मृत्यु, सभी मेरे ऊपर से एक साँस में धूल की तरह उड़ता चला जाता है। राह का न हँसना है और न रोना। घर ही अतीत के लिए शोक करता है, वर्तमान के लिए सोचता है और भविष्य के लिए आशा लगाये रहता है। परन्तु मार्ग में यह कुछ नहीं, वह तो वर्तमान प्रत्येक पल के सैकड़ों-हज़ारों अभ्यागतों को लेकर ही व्यस्त रहता है। ऐसे स्थान पर, अपने पद-गौरव पर विश्वास रख कर, अत्यन्त दर्प के साथ पैर रखता हुआ कौन अपने चरण-चिन्हों को चिरकाल तक रख जाने की चेष्टा करता है! मैं कुछ भी पड़ा रहने नहीं देता―हँसना भी नहीं, और रोना भी नहीं। केवल मैं ही पड़ा हुआ हूँ।


मन्दिर

उड़ीसा में भुवनेश्वर का मन्दिर मैंने जब पहले पहल देखा तब मालूम हुआ कि जैसे कोई नया ग्रन्ध पढ़ा। उस समय मुझे यह अच्छी तरह मालूम हुआ कि इन पत्थरों में बातें लिखी हुई हैं। वे बातें बहुत शताब्दियों से चुप―गूँगी सी―रहने के कारण जैसे हृदय पर और भी अधिक असर डालती हैँ।

ऋक् बनानेवाले ऋषि छन्दों में मन्त्रों की रचना कर गये हैँ। यह मन्दिर भी पत्थरों का मन्त्र है। हृश्य की बात प्रत्यक्ष होकर आकाश की ओर सिर उठाये खड़ी हैं।