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हर्बर्ट स्पेन्सर

किया। छापे कोई क्यों? कोई ऐसी किताबों को पूँछे भी? निदान लाचार होकर स्पेन्सर ने इस पुस्तक के थोड़े- थोड़े अंश को त्रैमासिक पुस्तक के रूप में निकालना शुरू किया। परन्तु फिर भी ग्राहकों की कमी रही। उसे बरा- वर घाटा होता गया। जब वह इस पुस्तक की पहली तीन जिल्दे निकाल चुका तब हिसाब करने पर उसे मालूम हुआ कि कोई १५ वर्ष में उसे अठारह हज़ार रुपये का घाटा रहा! स्पेन्सर ही ऐसा था जो इतना घाटा उठा सका। अब उसने इरादा किया कि इस पुस्तक की अगली जिल्दों का प्रकाशित होना बन्द कर दिया जाय! परन्तु सौभाग्यवश बन्द करने का समय नहीं आया। जैसे-जैसे उसकी प्रसिद्धि होती गई वैसे ही वैसे उसकी किताबों की बिक्री भी बढ़ती गई। परन्तु जो घाटा स्पेन्सर ने उठाया था उसे पूरा होने मे २४ वर्ष लगे। इसके बाद उसे यथेच्छ आमदनी होने लगी और फिर कभी उसे अपनी आर्थिक अवस्था के सम्बन्ध में शिकायत करने का मौक़ा नहीं मिला। उसने अपनी किसी-किसी किताब के छपाने और प्रकाशित करने में, बिक्री से होनेवाली आम- दनी का कुछ भी ख़याल न करके, हज़ारो रुपये ख़र्च कर दिये। समाजशास्त्र-सम्बन्धी अकेली एक पुस्तके के छपाने में उसने कोई ४४ हज़ार रुपये वरवाद कर दिये। इस बहुत बड़ी रक़म के खर्च करने के विषय में उसने विनोद के तौर पर लिखा है कि यदि मेरी उम्र १०० वर्ष से