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विदेशी विद्वान्

पन्द्रह वर्ष पहले से वह एकान्तवास करने लगा था। वह बहुत कम सिलता-जुलता था। अपने सांसारिक काम समाप्त करके वह मृत्यु की राह देखने लगा था। अन्त में वह आ गई और ८४ वर्ष की उम्र में, ८ दिसम्बर १९०३ को, वह उसे इस लोक से उठा ले गई। पर उसका अक्षय्य यश, पूर्ववत्, किबहुना उससे भी अधिक, प्रकाशित हो रहा है। उसे ले जाने या कम कर देने की किसी में शक्ति नहीं। स्पेन्सर ने लिख रक्खा था कि मरने पर मेरा मृत शरीर जलाया जाय, गाडा न जाय। ऐसा ही किया गया और उसका नश्वर पञ्च- भूतात्मक शरीर अग्नि के संस्कार से फिरपञ्चभूतों में जा मिला। शव-दाह की प्रथा जिन लोगों में नहीं है उन्हें स्पेन्सर के उदा- हरण पर विचार करना चाहिए। इस देश के निवासियों में श्यामजी कृष्ण वर्मा पहले सज्जन हैं जिन्होंने आक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय से एम॰ ए॰ की पदवी पाई है। स्पेन्सर की श्मशान-क्रिया के समय वे वहाँ उपस्थित थे। थोड़ा सा सम- योचित भाषण करने के बाद उन्होंने १५ हज़ार रुपया ख़र्च फरक स्पेन्सर के नाम से एक छात्रवृत्ति नियत करने का निश्चय किया। इस निश्चय का वे पालन भी कर रहे हैं। इँगलेड के इस ब्रह्मर्षितुल्य वेदान्त वेत्ता का इस तरह भारतवर्ष के एक विद्वान् द्वारा आदर होना कुछ कौतूहलजनक अवश्य है। सच है, दर्शन-शास्त्र की महिमा यह बुड्ढा भारत अब भी ख़ूब जानता है।