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विदेशी विद्वान्

राजा लक्ष्मणसिह-कृत इसका अनुवाद यह है―

“सरसिज लगत सुहावनो यदपि लियो ढकि पंक।
कारी रेख कलँकहू लसति कलाधर अंक॥
पहरे वल्कल बसन यह लागत नीकी बाल।
कहा न भूषण होइ जो रूप लिख्यो विधि भाल॥”

शकुन्तला के रूप-वर्णन की यह बहुत ही सरस और सनोहारिणी उक्ति है। सहृदय मात्र इसके प्रमाण हैं। परन्तु कालिदास की यह उक्ति मुग्धानल को नहीं भाई। आपने कालिदास के उस श्लोक को अच्छा समझकर अनुवाद किया है जिसमें कवि ने शकुन्तला की उपमा लता से दी है। श्लोक यह है―

अधरः किसलयराग. कोमलविटपानुकारिणौ बाहू।
कुसुममिव लोभनीयँ यौवनमङ्गे सन्नद्धम्॥”

राजा लक्ष्मणसिंह ने इसका अनुवाद किया है―

“अधर रुचिर पल्लव नये, भुज कोमल जिमि डार।
“अङ्गन में यौवन सुभग, लसत कुसुम उनहार॥

इस श्लोक की अपेक्षा ऊपर का श्लोक कितना अच्छा है, इसका विचार पाठक ही करे। पर मुग्धानल साहब कहते हैं कि शकुन्तला की सुन्दरता पर मुग्ध होकर ( struck by her beauty ) दुष्यन्त ने “अधरः किसलयरागः” ही अपने मुँह से कहा। “मुग्ध” होने की बात मूल में तो कहीं है नहीं। पर कविता की मनोहरता और उसके लोकोत्तर भाव