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विदेशी विद्वान्

कालिदास के पद्य में “शशिनि” बहुत ही यथार्थ पद है। “शश” कहते हैं कलङ्क को। चन्द्रमा कलङ्की है। इसी से उसका नाम शशिन् हुआ। और, कलङ्की का अस्त हो जाना उचित ही है। इसी से इस पद को राजा साहब ने अपने अनुवाद में रहने दिया है। इस श्लोक में और भी विशेषतायें हैं। श्लोक के प्रथमार्द्ध में शशी के अस्त होने से कुमुदिनी को शोभाहीन बतलाकर कवि ने समासोक्ति-अलङ्कार द्वारा यह सूचित किया है कि बिना नायक के नायिका अच्छी नहीं लगती। अर्थात् चन्द्रमा और कुमुदिनी का विशेष दृष्टान्त देकर नायक-नायिका-सम्बन्धी एक सर्व-साधारण नियम की सूचना दी है। पर उत्तरार्द्ध मे कवि ने इसका बिलकुल उलटा किया है। वहाँ उसने जो यह कहा है कि पति के परदेश-वासी होने से अवला (जो बलहीन हैं) मात्र को वियोग का दुःख दुःसह हो जाता है, सो एक सर्व-साधारण नियम है। इस साधारण नियम से अर्थान्तरन्यास-अलङ्कार द्वारा यह विशेष अर्थ निकलता है कि जब सभी अबलाओं को पति का वियोग दुःसह हो जाता तब चन्द्र-पति के अस्त हो जाने पर कुमुदिनी- पत्नी को उसका वियोग दुःसह होना ही चाहिए।

आचार्य्य मुग्धानल ने इसका कैसा अनुवाद किया है सो अब सुनिए―


The moon has gone; the lilies on the lake,
Whose beauty lingers in the memory,