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मुग्धानलाचार्य्य


तो पुत्र का स्पर्श हाथ, छाती, या मुख में हो जाने पर भी सारे शरीर में सुख-सञ्चार होना चाहिए। खैर, यह तो एक बात हुई। दूसरी बात यह है कि आचार्य्य ने कालिदास के “कृतिनः” पद का अनुवाद “Father” ( पिता ) जो किया है सो भी ग़लत है। आचार्य्य को “पिता” शब्द से बड़ा प्रेम मालूम होता है। “गृहिणः” ( गृहस्थ ) का भी अर्थ आपने पिता कर दिया और “कृतिनः” का भी! “कृती” का अर्थ है पुण्यवान्, भाग्यशाली। सो लड़के का पालन-पोषण करने- वाले पिता, चचा, मामू, भाई सभी पुण्यवान् और सौभाग्य- शाली हो सकते हैं। तीसरी बात यह है कि मुग्धानलाचार्य्य ने “अड्कत्प्ररूढः” का अर्थ जो “From whose loins he sprang” किया है सो अशुद्ध होने के सिवा उद्वेगजनक भी है। कालिदास का मतलब है कि जिसके अङ्क में, गोद में, उत्सङ्ग में, खेल-कूदकर यह इतना बड़ा हुआ है उसे न मालूम इसका स्पर्श कितना सुखदायक होगा। पर आचार्य्य के अँगरेजी-वाक्य का अर्थ है “जिसकी कमर से यह निकला या निकल पड़ा है उसके अन्तःकरण मे यह न मालूम कितना सुख उत्पन्न करेगा?” अब सोचने की बात है कि भला कालि- दास ऐसी जघन्य बात कभी अपने मुँह से निकाल सकते हैं? “प्ररूढः” का अर्थ यहाँ बढ़ने या बड़े होने का है, पैदा होने या निकलने का नहीं। “Loins” का अर्थ अँगरेज़ी कोश- कार “कमर” ही लिखते हैं; पर आचार्य्य ने उसे “Lap” के