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अलबरूनी


हिन्दुओं से द्वेषभाव न रखता था। यह बात इंडिका के प्रत्येक पृष्ठ से प्रकट होती है। जिन्होंने उसे एक बार भी पढा है वे उसके मतों की उदारता और सच्ची समालोचना- शक्ति पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। उसने जहाँ हम लोगों के आचार, व्यवहार और शिक्षा-दीक्षा के प्रतिकूल समालोचना की है वहाँ पर मूल संस्कृत-शास्त्र का प्रमाण अवश्य उद्धृत किया है। ऐसा किये बिना उसने कोई मन्तव्य प्रका- शित नहीं किया। प्रतिकूल समालोचना करते समय उसने एक जगह यह भी लिखा है―“सम्भव है कि इस उद्धृत अंश का कोई और सुसङ्गत अर्थ हो; परन्तु अब तक मैंने उसे नहीं सुना।” यह हम लिख चुके हैं कि अरबी और ग्रीक-भाषा- विशारद अलबरूनी ने संस्कृत-साहित्य का अध्ययन करने के बाद ’इंडिका’ रची थी। उसकी ‘इंडिका’ के साथ संस्कृतानभिज्ञ अँगरेज़-लेखकों के ग्रन्थो की तुलना नहीं हो सकती।

अलबरूनी ने जब ‘इंडिका’ की रचना की थी तब मुसल- मान लोग भारतवर्ष को काफ़िरस्तान कहकर घृणा करते और पराजित देश समझकर उसकी उपेक्षा करते थे। इधर भारत- वासी मुसलमानों को म्लेच्छ कहकर तिरस्कार करते और विजेता समझकर भय खाते थे। उस समय ग़ज़नी के सुलतान और उसके अनुयायी विजयोल्लास मे मग्न होकर भारतवर्ष का वक्ष विदीर्ण करने मे लगे हुए थे। ऐसे समय में एक मुसलमान का काफ़िरों का धर्मशास्त्र पढ़ना और समालोचना६