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विदेशी विद्वान्


करने में धीरता के साथ दार्शनिक-प्रणाली से प्रत्येक विषय की मीमांसा करना बड़े विस्मय की बात है। 'इंडिका' से मालूम होता है कि काफ़िर होने पर भी हिन्दू अलबरूनी के विचार में भक्ति और श्रद्धा के पात्र थे । आजकल के यूरोपियन विद्वान कहते हैं कि इसका एक विशेष कारण था। वह यह कि जिस सुलतान महमूद ने अलबरूनी की जन्मभूमि खीवा की खाधी- नता हरण की थी उसी ने भारतवर्ष को भी जीता था। अत- एव स्वाधीनता-रत्नविवर्जित स्वदेश-प्रेमी के लिए सम-दुःख-दुखी एक पराधीन देश के प्रति सहानुभूति का होना स्वाभाविक ही है। जो हो, यद्यपि अलबरूनी ने इसलाम-धर्म का माहात्म्य प्रकाशित करने में कोई कसर नहीं रक्खी, तथापि उस हिंसा- विद्वेष के युग में भी उसने हिन्दुओं को काफ़िर समझकर उनसे घृणा नहीं की। इस बात को पाश्चात्य पण्डित भी मानते हैं।

अलबरूनी मूर्तिपूजा का अच्छा न समझता था। वह कहता था कि मूर्तिपूजा साधारण अदमियों ही के लिए है; विद्वानों के लिए तो एकेश्वरवाद है। भारत का वेदान्त- सम्मत धर्म इसलाम के एकेश्वरवाद धर्म से मिलता जुलता है, यह बात अलबरूनी ने कई बार लिखी है।

अलबरूनी ने जिस समय 'इंडिका' रची थी वह समय एशिया-खण्ड के लिए विप्लव का युग था। एक ओर बौद्ध और हिन्दुओं के सङ्घर्ष के कारण बौद्ध लोग विताड़ित हो रहे थे। दूसरी ओर वौद्ध और इसलाम के परस्पर युद्ध में इस-