पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१४९

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विद्यापति ।

सखी । २८२ नव अनुरागिनि राधा । किछु नहि मानए बाधा ॥ २ ॥ एकलि कएल पयान | पथ बिपय नहि मान ॥ ४ ॥ तेजल मणिमय हार । उच कुच मानए भार ॥ ६ ॥ कर सझे कङ्कण मुदरि । पयहि तेजल सगरि ॥ ८॥ माणमय मञ्जिर पाय । दूरहि तेजि चलि जाय ॥१०॥ यामिनि घन अँधियार । मनमथ हिय उजियार ॥ १२॥ विधिनि विद्यारल वाट । पेमक आयुधे काट ॥१४॥ विद्यापति मति जान । ऐसन न हेरि आन ।।१६॥ --:--- सखी । २८३ गुरुजन नयन पगार पवन जो सुन्दरि सतरि चललि ।। जनि अनुरागे पाछु धरि पेललि करे धरि कामे तिडली ॥२॥ कि आरे नबि अभिसारक रीती ।। के जान कोने विधि कामे पढ़ाउलि कामिनि तिहुयन जीती ॥४॥ अम्बर सकल विभूषन सुन्दर घनतर तिमिर सामरी । केहु कतहु पथ लखहि न पारलि जनि मसि चुड़लि भमरी ॥६॥ चेतन आगु चतुरपन कइसन विद्यापति कवि भाने । राजा सिवसिंह रूपनरायन लखिमा देवि रमाने ॥८॥