पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१५४

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विद्यापति ।

राधा । ३८७ आज मोझे जाएव हरि समागमे कत मनोरथ भेल । घर गुरुजन निन्द् निरुपइते चन्दाए उदय देल ॥२॥ चन्दा भलि नहि तुअ रीति ।। एहि मति तोहँ कलङ्क लागल किछु न गुनह भीति ॥४॥ जगत नागरी मुखे जिनला हे गेला हे गगन हारि । ताहाँहु राहु गरास पड़ला देव तोह की गारि ॥६॥ एके मास विहि तोह सिरीजए दए सकलेओ बल । दोसर दिना पुर न रहसि एही पापक फल ॥८॥ भन विद्यापति शुन तो जुवति चॉदक न कर साति । दिना साह चॉदक आइति ताहितर भलि राति ॥१०॥ राधा । २८८ अगमने प्रेम गेमने कुल जाएत चिन्ता पक्क लागलि करिनी। मञ अवला दृह दिस भमि झाखो जनि ब्याध डेरे भीरु हरिनी ॥२॥ चन्दा दुरजन गमन विरोधी । उगल गगन भरि नखत चैरि मोरा के पहु, आन परवधी ॥४॥ कुहू भरमे पथ पद ग्रारोपल आए तुलाएल पञ्चदशी । हरि अभिसार मार उद्वजक कोने निवारव कुगत शशी ॥६॥