पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१६६

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१५८ विद्यापति ।

राधा ३ ०६ साख हे आज जाएब मोही । घर गुरु जन डर न मानव वचन चूकब नही ॥ २ ॥ चॉदने आनि आनि अङ्ग लेपद भूषन कए गजमोती । अञ्जन विहुन लोचन जुगल धरत धवल जोती ।। ४ ।। धवल बसने तनु झपाशोब गमन करव भन्दा । जइओ सगर गगने उगत सहसे सहसे चन्दा ॥ ६ ॥ न हमे काहुक डीठि निवारवि न हम करब ओते ।। अधिक चोरी पर रॉो करिअ एहे सिनेहक लोते ॥ ८ ॥ भने विद्यापति सुनह जवति साहसे सकल काजे । चुझ सिवसिंह रस रसमय सोरम देवि समाजे ॥ १० ॥ ठूती । आज पुनिमा तिथि जानि मोये ऐलह उचित तोहर अभिसार । देह जोति ससिकिरण समाइति के विभिनावय पार ॥ ३ ॥ सुन्दरि अपनहु, हृदय बिचारि । ऑखि पसारि जगत हम देखल के जग तुय सनि नारि ॥ ४ ॥ तोहे जनु तिमिर हीत कय मानह आनन तोर तिमिराांरे । सहस विरोध दूरै परिहर धनि चल उठ जतय मुरारि ॥ ६ ॥ दृती वचन हीत कय मानल चालक भेल पचबान । हरि अभिसार चललि चर कामिनी विद्यापति कवि भान ॥ ८ ॥