पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१६८

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विद्यापति।

ठूत गुरुजन कहि दुरजन सञो वारि । कौतुके कुन्द करसि फुल धारि ॥२॥ कैतवे वारिं सखी जन सङ्ग । अह अभिसार पूर रति रङ्ग ॥ ४ ॥ ए सखि वचन करहि अवधान । रात कि करति आरति समधान ॥६॥ अन्धकूप सम रयनि विलास । चोरक मन जनि बसए वास ॥६॥ हरषित होए लङ्का के राए । नागर की करति नागरि पाए ॥१०॥ ठूती । ३१४ दृढ़ बिसोयासे तुय पन्य निहारि । जामुन कुञ्ज रहल बनमारि ॥ ३ ॥ सुन्दर मा कुरु मनोरथ भङ्ग । अह अभिसारे दिगुन थिक रङ्ग ॥४॥ तुहु धनिं सहजहि पदुमिनि जाति । तोहर विलम्ब उचित नह आति ॥६॥ भूखल जन यदि न पाअव अन्न । बिफल भोजन दिन अबसन्न ॥ ८ ॥ आरोत रति दुहु नह समतृल । गाहक आदर सबहु तह मूल । ' गए मिलि नागर जटुमनि पाहे । कह कविरञ्जन रस निरवाह ॥१३