पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१६९

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विद्यापति । ठूती ३१५ जलद वारस घन दिवस अन्धार । रयनि भरने में साजु अभिसार ॥२॥ आसुर करमे सफल भैल कोज । जलदहि राखल दुहु दिस लाज ॥४॥ मञ कि बोलव सखि गुपनगेनान । हाथिक चोरि दिवस परमान ॥ ६ ॥ मञ दूती मति मोर हरास । दिवसहु के जानिय पिको पास ॥८॥ आरति तेरि कुसमसर रङ्ग । अनि जीवने देखिअ अभिसङ्ग ॥१०॥ दूती वचने सुमुखि भेल लाज । दिवस अएलाहु पर पुरुष समाज ॥१३॥ सखी । ३१६ तपनक तापे तपत भेल महीतल तातल वालुका दहन समान । चढ़ल मनोरथ भाविनि चलु पथ ताप तपन नहि जाने ॥ २ ॥ पेमक गति दुरवार । नवीन यौवनि धनि चरण कमल जिनि तइओ कयल अभिसार ॥४॥ कुल गुण गौरव सति यश यपयश तृण करि न मानय राधे । मन माही मदन महोदधि उछलल वृडल कुल भरियादे ॥ ६ ॥ कतहु विधिनि जितल अनुरागनि साधल मनमय तन्त । गुरुजन नयन निवारइत सुवदनि पाठ करय मनमय तन्त ।।८॥ केलि कलावति कुसुम सरसि कुले कौशले करल पयान । यत छले मनारय पुरल मनमथ इह कविशेस्वर भान ॥ १० ॥ 21