पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१७३

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विद्यापति । १६५। लाथ ( छलना ) राधा । ३२३ | न कह न कह मिया अपवाद । सहजे यौवन ताहे कुल मरिजाद ॥२॥ सखि परसङ्गे निशि जागल हाम । विपरित होय जनु गुरुकुल ठाम ॥४॥ | ऐसन वचन पुनु न कहबि माय । रहसहि वचन साच जनि होय ॥६॥ राधा । ३२४ मन्दिरे अछल सहचरि मेलि । परसङ्गे रजनी अधिक भई गेलि ॥२॥ जव सखी चललिह अपन गेह । तव मझु निंदे भरल सब देह ॥४॥ | सूति रहल हम करि एक चीत । दैव विपाके भेल विपरीत ॥६॥ न बोल सजनि सुन सपन संवाद । हसइत केह जनि करे परिवाद् ॥८॥ | विषाद पडल मझु हृदयक माझ । तुरिते घुचायलों नीविक काज ॥१०॥ एक पुरुख पुन आल आगे । कोपे अरुण ऑखि अधरक दागे ॥१२॥ से भये चिकुर चीर अनिहि गेल । कपाले काजर मुखे सिन्दुर भेल ।।१४।। अन्तरे कहब केह अपयश गाव । विद्यापति कह के पतियाव ॥१६॥