पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१७७

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१६६.

विद्यापति । मानशिक्षा। सखी । | ३३० खनरि खन महघि भइ किछु अरुन नयन कई कपटे धरि मान सम्मान लेही ।। कनक जो पेम कसि पुनु पलटि बाङ्क हसि आधि सञो अधर मधु पान देही ॥२॥ अरे रे इन्दमुखि अढ न कर पिय हृदय खद् हर | कुसुमसर रङ्ग संसार सारा ॥३॥ वचने बस होसि जन ससरि भिन होइह तनु सहजे वरु छाडि देव सअन सीमा ।। प्रथम रस भङ्ग भैले लोमे मुख सोभ गेले | वॉधि भुज पासे पिअ धरब गीमा ॥५॥ जदि नयन कमलबर मुकुलकेर कन्ति धर खर नखर घात कई सेहे वेला ।। परम पद लाभ सम मोदे चिरे हृदय रम नागरी सुरत सुख अमिय मेला ॥७॥ सरस कवि सुरस भने चारुतर चतुरपने नारि राहियइ पञ्चबाना । सकल जन सुजन गति रानि लखिमाक पति रूप नरायन सिवासिंह जाना ॥६॥ 99