पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१९२

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१७८ विद्यापति । 17:58, 22 February 2019 (UTC)17:58, 22 February 2019 (UTC)17:58, 22 February 2019 (UTC)••••••••••• राधा । प्रथमहि गिरि सम गौरव भेल । हृदयहु हार ऑतर नहि देल ॥ २ ॥ सुपुरुप वचन कएल अवधान । भल मन्द दुआओं वुझव अवसान ॥४॥ चल चल माधव भलि तुअ रीति । पिसुन वचने परिहलि पिरीति ॥६॥ परक वचने आपल कान । तहि खने जानल समय समान ॥८॥ आवे अपहु हरि तेज अनुरोध । काहु का जनु हो विहिक विरोध ॥१०॥ न भेले रङ्ग रभस दुर गेल । इथि हम खेद एक नहि भेल ॥१२॥ एके पए खेद जे मन्दा समाज । भलेह तेजल अवे ऑखिक लाज ॥१४॥ भनइ विद्यापति हरि मने लाज । काहे का जनु हो मन्दा समाज ॥१६॥ सखी । ३४७ अहनिसि वचने जुडओलह कान । सुचिरे रहत सुख इ भेल भान ॥२॥ अवे दिने दिने है वुझल विपरीत । लाज गमाए विकल भेल चति ॥४॥ विहिक विरोधे भन्दा सञो भेट । भॉड़ छुइल नहि भरले पेट ॥६॥ लोभे कारअ हे मन्द जत काम । से न सफल हो जञो विहि वाम ॥८॥ राधा । ३४८ बोलल चोल उत्तम पए राख । नीच सवद जन की नहि भाख ।। " हमे जे उत्तम कुल गुनमति नारि । एत वा निअ मने हलब विचारि ॥ ४ ॥